14-10-81  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन

"सर्व खज़ानों की चाबी एक शब्द - ‘बाबा'"

सर्वश्रेष्ठ भाग्य विधाता, पद्मापदम भाग्यशाली बनाने वाले बापदादा बोले –

आज भाग्यविधाता बाप अपने भाग्यशाली बच्चों को देख रहे हैं। भाग्यशाली तो सभी बने हैं लेकिन भाग्यशाली शब्द के आगे कहाँ सौभाग्यशाली, कहाँ पद्मापदम भाग्यशाली। भाग्यशाली शब्द दोनों के लिए कहा जाता है। कहाँ सौ और कहाँ पदम, अन्तर हो गया ना, भाग्य विधाता एक ही है। विधाता की विधि भी एक ही है। समय और वेला भी एक ही है। फिर भी नम्बरवार हो गये। विधाता की विधि कितनी श्रेष्ठ और सहज है। वैसे लौकिक रीति से आजकल किसी के ऊपर ग्रहचारी के कारण तकदीर बदल जाती है तो ग्रहचारी को मिटा कर श्रेष्ठ तकदीर बनाने के लिए कितने प्रकार की विधियाँ करते हैं! कितना समय, कितनी शक्ति और सम्पत्ति खर्च करते हैं! फिर भी अल्पकाल की तकदीर बनती है। एक जन्म की भी गारन्टी नहीं क्योंकि वे लोग विधाता द्वारा तकदीर नहीं बदलते। अल्पज्ञ, अल्प-सिद्धि के प्राप्त हुए व्यक्ति द्वारा अल्पकाल की प्राप्ति करते हैं। वह हैं अल्पज्ञ व्यक्ति और यहाँ है विधाता। विधाता द्वारा अविनाशी तकदीर की लकीर खिंचवा सकते हो। क्योंकि भाग्यविधाता दोनों बाप इस समय बच्चों के लिए हाजर ना जर हैं। जितना भाग्य विधाता से भाग्य लेने चाहो उतना अब ले सकते हो। इस समय ही भाग्य-दाता भाग्य बाँटने के लिए आयें हैं। इस समय को ड्रामा अनुसार वरदान है। भाग्य के भण्डारे भरपूर खुले हुए हैं। तन का भण्डारा, मन का, धन का, राज्य का, प्रकृति दासी बनने का, भक्त बनाने का, सब भाग्य के भण्डारे खुले हैं। किसी को भी विधाता द्वारा स्पेशल प्राप्ति का चांस नहीं मिलता है। सबको एक जैसा चांस है। कोई भी बातों का कारण भी बंधन के रूप में नहीं है। पीछे आने का कारण, प्रवृत्ति में रहने का कारण, तन के रोग का कारण, आयु का कारण, स्थूल डिग्री या पढ़ाई का कारण, किसी भी प्रकार के कारण का ताला भण्डारे में नहीं लगा हुआ है। दिन-रात भाग्य विधाता के भण्डारे भरपूर और खुले हुए हैं। कोई चौकीदार नहीं है। फिर भी देखो लेने में नम्बर बन जातें हैं। भाग्य विधाता नम्बर से नहीं देते हैं। यहाँ भाग्य लेने के लिए क्यू में भी नहीं खड़ा करते हैं। इतने बड़े भण्डारे हैं भाग्य के, जब चाहो जो चाहो अधिकारी हो। ऐसे है ना? कोई ताला और क्यू तो नहीं है ना? अमृतवेले देखो-देश विदेश के सभी बच्चे एक ही समय पर भाग्य विधाता से मिलन मनाने आते, तो मिलना हो ही जाता है। मिलन मनाना ही मिलना हो जाता है। माँगते नहीं हैं, लेकिन बड़े ते बड़े बाप से मिलना अर्थात् भाग्य की प्राप्ति होना। एक है बाप बच्चों का मिलना, दूसरा है कोई चीज़ मिलना। तो मिलन भी हो जाता है ओर भाग्य मिलना भी हो जाता है। क्योंकि बड़े आदमी कभी भी किसी को खाली नहीं भेज सकते हैं। तो बाप तो है ही विधाता, वरदाता, भरपूर भण्डारे। खाली कैसे भेज सकते! फिर भी भाग्यशाली, सौभाग्यशाली पदम भाग्य शाली, पद्मापद्म भाग्यशाली, ऐसे क्यों बनतें हैं? देने वाला भी है, भाग्य का खज़ाना भी भरपूर है, समय का भी वरदान है। इन सब बातों का ज्ञान अर्थात् समझ भी हैं। अनजान भी नहीं हैं फिर भी अन्तर क्यों? (ड्रामा अनुसार)। ड्रामा को ही अभी वरदान है, इसलिए ड्रामा नहीं कह सकते।

विधि भी देखो कितनी सरल है। कोई मेहनत भी नहीं बतलाते, धक्के नहीं खिलाते, खर्चा नहीं कराते। विधि भी एक शब्द की है। कौन सा एक शब्द? एक शब्द जानते हो? एक ही शब्द सर्व खज़ानों की वा श्रेष्ठ भाग्य की चाबी है। वही चाबी है, वही विधि है। वह क्या है? यह ‘‘बाबा'' शब्द ही चाबी और विधि है। तो चाबी तो सबके पास है ना? फिर फर्क क्यों? चाबी अटक क्यों जाती है? राइट के बजाए लेफ्ट तरफ घुमा देते हो। स्वचिन्तन के बजाए, परचिन्तन, यह उल्टे तरफ की चाबी है। स्वदर्शन के बदले परदर्श न, बदलने के बजाए, बदला लेने की भावना, स्वपरिवर्त्तन के बजाए पर-परिवर्त्तन की इच्छा रखना। काम मेरा नाम बाप का, इसके बजाए नाम मेरा काम बाप का, इसी प्रकार की उल्टी चाबी धुमा देते हैं, तो खज़ाने होते हुए भी भाग्यहीन खज़ाने पा नहीं सकते। भाग्य विधाता के बच्चे और बन क्या जाते हैं? थोड़ी सी अंचली लेने वाले बन जाते। दूसरा क्या करते हैं?

आजकल की दुनिया में जो अमूल्य खज़ाने लाकर्स वा तिजोरियों में रखते हैं, उन्हों के खोलने की विधि डबल चाबी लगातें हैं वा दो बारी चक्कर लगाना होता है। अगर वह विधि नहीं करेंगे तो खज़ाने मिल नहीं सकते। लाकर्स में देखा होगा - एक आप चाबी लगायेंगे, दूसरा बैंक वाला लगायेगा। तो डबल चाबी होगी ना! अगर सिर्फ आप अपनी चाबी लगाकर खोलने चाहो तो खुल नहीं सकता। तो यहाँ भी आप और बाप दोनों के याद की चाबी चाहिए। कई बच्चे अपने नशे में आकर कहते हैं - मैं सब कुछ जान गया हूँ, मैं जो चाहूँ वह कर सकता हूँ, करा सकता हूँ। बाप ने तो हमको मालिक बना दिया है। ऐसे उल्टे मै-पन के नशे में बाप से सम्बन्ध भूल, स्वयं को ही सब कुछ समझने लगते हैं। और एक ही चाबी से खज़ाने खोलने चाहते हैं। अर्थात् खज़ानों का अनुभव करने चाहते हैं। लेकिन बिना बाप के सहयोग वा साथ के खज़ाने मिल नहीं सकते, तो डबल चाबी चाहिए। कई बच्चे बाप-दादा अर्थात् दोनों बाप के बजाए एक ही बाप द्वारा खज़ाने के मालिक बनने के विधि को अपनाते हैं, इससे भी प्राप्ति से वंचित हो जाते हैं। हमारा निराकार से डायरेक्ट कनेक्शन है, साकार ने भी निराकार से पाया इसलिए हम भी निराकार द्वारा ही सब पा लेंगे, साकार की क्या आवश्यकता है। लेकिन ऐसी चाबी खण्डित चाबी बन जाती है। इसलिए सफलता नहीं मिल पाती है। हंसी की बात तो यह है, नाम अपना ब्रह्माकुमारी, कुमारी कहलायेंगे और कनेक्शन शिव बाप से रखेंगे। तो अपने को शिवकुमार, कुमारी कहलाओ ना! ब्रह्माकुमार और कुमारी क्यों कहते? सरनेम ही है शिव वंशी ब्रह्माकुमार, ब्रह्माकुमारी तो दोनों ही बाप का सम्बन्ध हुआ ना!

दूसरी बात - शिव बाप ने भी ब्रह्मा द्वारा ही स्वयं को प्रत्यक्ष किया। ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मण एडाप्ट किये। अकेला नहीं किया। ब्रह्मा माँ ने बाप का परिचय दिलाया। ब्रह्मा माँ ने पालना कर बाप से वर्से के योग्य बनाया।

तीसरी बात - राज्य-भाग्य को प्रालब्ध में किसके साथ आयेंगे? निराकार तो निराकारी दुनिया के वासी हो जायेंगे। साकार ब्रह्मा बाप के साथ राज्य-भाग्य की प्रालब्ध भोगेंगे। साकार में हीरो पार्ट बजाने का सम्बन्ध साकार ब्रह्मा बाप से है वा निराकार से? तो साकार के बिना सर्व भाग्य के भण्डारे के मालिक कैसे हो सकते हैं? तो खण्डित चाबी नहीं लगाना। भाग्य विधाता ने भाग्य बाँटा ही ब्रह्मा द्वारा है। सिवाए ब्रह्माकुमार, कुमारी के भाग्य बन नहीं सकता।

आप लोंगो के यादगार में भी यही गायन है कि ब्रह्मा ने जब भाग्य बाँटा तो सोये हुए थे! सोये हुए थे वा खोये हुए थे? इस लिए उल्टी चाबी नहीं लगाओ, डबल चाबी लगाओ। डबल बाप भी और डबल आप और बाप भी, इसी सहज विधि से सदा भाग्य के खज़ाने से पद्मापद्म भाग्यशाली बन सकते हो। कारण को निवारण करो तो सदा सम्पन्न बन जायेंगे। समझा? अच्छा।

ऐसे भाग्य विधाता के सदा श्रेष्ठ भाग्यवान बच्चों को, सहज विधि द्वारा विधाता को ही अपना बनाने वाले, सदा सर्व भाग्य के खज़ानों से खेलने वाले, ‘‘बाबा-बाबा'' कहना नहीं लेकिन ‘‘बाबा'' को अपना बनाना और खज़ानों को पाना, ऐसे सदा अधिकारी बच्चों को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।

पार्टियों से व्यक्तिगत मुलाकात

सुना तो बहुत है, सुनने के बाद स्वरूप बने? सुनना अर्थात् स्वरूप बनना। इसको कहा जाता है - मनरस। सिर्फ सुनना तो कनरस हो गया। लेकिन सुनना और बनना, यह है मनरस। मंत्र ही है - मनमनाभव। मन को बाप में लगाना। जब मन लग जाता है तो जहाँ मन होगा, वहाँ स्वरूप भी सहज बन जायेंगे। जैसे देखो किसी भी स्थान पर बैठे सुख व खुशी की बातों में मन चला जाता है तो स्वरूप ही वह बन जाता है। तो मनरस अर्थात् जहाँ मन होगा वैसा बन जायेंगें। अब कनरस का समय समाप्त हुआ और मनरस का समय चल रहा है। तो अभी क्या बन गये? भाग्य के खज़ानों के मालिक, सर्वश्रेष्ठ भाग्यवान बन गये ना! जैसा बाप वैसे हम। ऐसे समझते हो ना? चाबी भी सुना दी और विधि भी सुना दी। अभी लगाना आप का काम है। चाबी लगाने तो आती हैं ना? अगर चाबी को उल्टा चक्कर लग गया तो बहुत मुश्किल हो जायेगा। चाबी भी चली जायेगी और खज़ाना भी चला जायेगा। तो आप सब सुल्टी चाबी लगाने वाले पद्मापद्म भाग्यशाली हो ना? पद्मापद्म भाग्यशाली की निशानी क्या होगी? उनके हर कदम में भी पद्म होंगे और वे हर कदम में भी पद्मो की कमाई जमा करेंगे। एक भी कदम पद्मों की कमाई से वंचित नहीं होगा। इसलिए डबल पद्म, एक पद्म कमल पुष्प को भी कहते हैं, अगर कमल पुष्प के समान नहीं तो भी अपने भाग्य को बना नहीं सकते। कीचड़ में फंसना अर्थात् भाग्य को गंवाना। तो पद्मापद्म भाग्य शाली अर्थात् पद्म समान रहना और पद्मों की कमाई करना, तो देखो यह दोनों ही निशानियाँ हैं! सदा न्यारे और बाप के प्यारे बने हैं! न्यारा पन ही बाप को प्यारा है। जितना जो न्यारा रहता है उतना स्वत: ही बाप का प्यारा हो जाता। क्योंकि बाप भी सदा न्यारा है, तो वह बाप समान हो गया ना! तो हर कदम में चेक करो कि हर कदम अर्थात् हर सेकेण्ड, हर संकल्प में, हर बोल में, हर कर्म में, पदमों की कमाई होती है! बोल भी समर्थ, कर्म भी समर्थ, संकल्प भी समर्थ। समर्थ में कमाई होगी, व्यर्थ में कमाई जायेगी। तो हरेक अपना चार्ट स्वत: ही चेक करो। करने के पहले चेक करना यह है, यथार्थ चेकिंग। इसके करने के बाद चेक करो तो जो कर चुके वह तो हो ही गया ना! इसलिए पहले चेक करना फिर करना। समझदार वा नालेज- फुल की निशानी ही है - ‘‘पहले सोचना फिर करना।'' करने के बाद अगर सोचा तो आधा गंवाया, आधा पाया। कने के पहले सोचा तो सदा पाया। ज्ञानी तू आत्मा अर्थात् समझदार। सिर्फ रात को वा सुबह को चेंकिंग नहीं करते, लेकिन हर समय पहले चेकिंग करेंगे फिर करेंगे। जैसे बड़े आदमी पहले भोजन को चेक कराते हैं फिर खाते हैं। तो यह संकल्प भी बुद्धि का भोजन है, इसलिए आप बच्चों को संकल्प की भी चेकिंग कर फिर स्वीकार करना है अर्थात् कर्म में लाना है। संकल्प ही चेक हो गया तो वाणी और कर्म स्वत: ही चेक हो जायेंगे। बीज तो संकल्प है ना! आप जैसे बड़े और कल्प में हुए ही नहीं हैं।

2. सदा कर्मयोगी बन हर कर्म करते हो? कर्म और योग दोनों कम्बाइन्ड रहता है? जैसे शरीर और आत्मा दोनों कम्बाइन्ड होकर कर्म कर ही है, ऐसे कर्म और योग दोनों कम्बाइंड रहते हैं? कर्म करते याद न भूले और याद में रहते कर्म न भूले। कई ऐसे करते हैं कि जब कर्मक्षेत्र पर जाते हैं तो याद भूल जाती है। तो इससे सिद्ध है कि कर्म और याद अलग हो गई। लेकिन यह दोनों कम्बा- इन्ड हैं। टाइटल ही है - कर्मयोगी। कर्म करते याद में रहने वाले सदा न्यारे और प्यारे होंगे, हल्के होंगे, किसी भी कर्म में बोझ अनुभव नहीं करेंगे। कर्मयोगी को ही दूसरे शब्दों में कमल पुष्प कहा जाता है। तो कमल पुष्प के समान रहते हो? कभी किसी भी प्रकार का कीचड़ अर्थात् माया का वायब्रेशन टच तो नहीं होता है? कभी माया आती है या विदाई लेकर चली गई? माया को अपने साथ बिठा तो नही देते हो? माया को बिठाना अर्थात् बाप से किनारा करना। इसलिए माया के भी नालेजफुल बन दूर से ही उसे भगा दो। नालेजफुल अनुभव के आधार से जानते हैं कि माया की उत्पत्ति कब और कैसे होती है। माया का जन्म कमजोरी से होता है। किसी भी प्रकार की कमजोरी होगी तो माया आयेगी। जैसे कमजोरी से अनेक बीमारियों के जर्मस पैदा हो जाते हैं। ऐसे आत्मा की कमजोरी से माया को जन्म मिल जाता है। कारण है - अपनी कमजोरी, और उसका निवारण है - रोज की मुरली। मुरली ही ताजा भोजन है, शक्तिशाली भोजन है। जो भी शक्तियाँ चाहिए, उन सबसे सम्पन्न रोज का भोजन मिलता है। जो रोज शक्तिशाली भोजन ग्रहण करता है वह कमजोर हो नहीं सकता। रोज यह भोजन तो खाते हो न, उस भोजन का व्रत रखने की जरूरत नहीं। रोज ऐसे शक्तिशाली भोजन मिलने से मास्टर सर्वशक्तिवान रहेंगे। भोजन के साथ-साथ भोजन को हजम करने की भी शक्ति चाहिए। अगर सिर्फ सुनने की शक्ति है, मनन करने की शक्ति नहीं, तो भी शक्तिशाली नहीं बन सकते। सुनने की शक्ति अर्थात् भोजन खाया और मनन शक्ति अर्थात् भोजन को हजम किया। दोनों शक्ति वाले कमजोर नहीं हो सकते।

टीचर्स के साथ - सेवाधारी की विशेषता ही है - त्याग और तपस्या। जहाँ त्याग और तपस्या है, वहाँ सेवाधारी की सदा सफलता है। सेवाधारी अर्थात् जिसका एक बाप के सिवाए ओर कोई नहीं। एक बाप ही सारा संसार है। जब संसार ही बाप हो गया तो और क्या चाहिए! सिवाए बाप के और दिखाई न दे। चलते-फिरते, खाते-पीते एक बाप और दूसरा न कोई। यही स्मृति में रखना अर्थात् सफलता मूर्त्त बनना। सफलता कम होती तो चेक करो- जरूर बापदादा के साथ कोई दूसरा बीच में आ गया है। सफलतामूर्त्त की निशानी - एक बाप में सारा संसार।